आज रामेशर हलवाई बहुत खुश था गांव के चौखट चौखट जाकर सबका मुंह मीठा करवा रहा था. जुलाहा टोले में भी आया, सदाम ने पुछ लिया का बात है रामेशर चाचा बहुत खुश हो..हमार नन्हे को पटवारी की नौकरी मिल गयी भैया. लेवो तुम भीप्रसाद.. आशिर्वाद दे दो. अच्छे से काम करे खुब कमावे..सदाम सिर हिलाकर अधमने से जवाब दिया अल्ला आगे बढ़ावे उसे...रामेशर काका चले गए लेकिन उस रात सदाम को नींद नहीं आयी. जीवन भर चूल्हे के आगे हाट मेले में दिन दिन भर तपते रामेशर काका का लडक़ा पढ़ लिख कर पटवारी बन गया. पहली बार उसके मन में कुछ कचोटने लगा था. सोचा नबील को नहीं पढ़ा सका लेकिन करीम पढ़ ले तो..जीवन सुधर जाए. नबील भी मान गया. करीम मदरसे जाने लगा..अब घर में जहां जब सब पलाश के पत्तों से बीड़ी बनाने में मशगूल रहते करीम किताबों में उलझा रहता. जूलिया कई बार काम छोडक़र करीम के पास मंडराने लगती. लेकिन समीना के चिल्लाते ही भाग आती..घर भर पढऩे लगोगे तो कमाएगा कौन. चूल्हा कहां से जलेगा. सदाम ने बाद में दोनों बच्चों को भी मदरसे में दाखिला करवा दिया. बच्चे बढऩे लगे तो घर का खर्च भी बढ़़ा लेकिन उस लिहाज से आमदनी नहीं बढ़ी. दिन बरस गुजरे नबील की शादी हो गयी लेकिन बीबी आते ही वह नयी बहू के साथ मां-बाप से दूर हो लिया. करीम, जूलिया पढ़ते रहे. जूलिया ब्यूटिशियन का कोर्स करने बाद खुद शादी रचा कर चली गयी. करीम ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम पर लग गया. घर से दूर होने के कारण कंपनी का क्वाटर मिला, तो वहां सदाम और समीना को भी बुला लिया. लेकिन कहते हैं कि इंसान और घोड़ों के दिन समान नहीं रहते. बेटे की अपनी धुन देखकर अपना खर्च उठाने यहां सदाम ने फिर थके हाथों से बीड़ी का धंधा शुरू किया. तकलीफ तब होती जब हफ्ते का हिसाब करीम लेता. बचे हुए पैसे भी रख लेता लेकिन एक बार भी अब्बा या अम्मी की खैर नहीं पूछता. बाप के सामने ही वह सिगरेट का धूंआ उड़ा जाता. सदाम ने आधी जिन्दगी बीड़ी बेची, लेकिन कभी होठों से लगाकर धूंए का स्वाद नहीं तक चखा. खैर अब उसमें इतनी हिम्मत भी नहीं थी कि वह बेटे से लड़े. खींच तान में कुछ दिन गुजरे कि लव मैरिज कर करीम भी मां-बाप को छोड़ कहीं और रुख्सत हो लिया. सदाम निराश होकर अपनी बीबी के साथ गांव लौट आया. वहां जहां बदहाल आंगन, टूटी चौखट उसकी बाट निहार रहे थे. जिसे कभी बिना सोचे ही छोड़ गया था. लेकिन उसे वहीं लौटना पड़ा . दिन उतरने लगा था बाहर नीम के पेड़ के नीचे औंधे लेटे सदाम आसमान की ओर एकटक देखे जा रहा था. तभी उसके जेहन में पुरानी यादों की तमाम तस्बीरें उभरती चली गयीं.
२
गांव की हाट में नबील चिल्लाए जा रहा था-बीड़ी ले लो भाई, बीड़ी..मजेदार बीड़ी, जायकेदार बीड़ी.. बीड़ी ले लो भाई बीड़ी..लोग आते, देखते और निकल जाते. वैसे बीड़ी तो वही खरीदता है, जिसे पीने की आदत हो. बाजार में हर कोई व्यसनी तो नहीं आता. हफ्ते की चार बाजारों में नबील की पुकार बस यही होती. कभी कभी खीझ भी होती, बीड़ी के बदले कुछ और बेचते तो शायद जादा धंधा होता. लेकिन बाप-दादों का पुस्तैनी कारोबार है, सो किए जा रहे..नबील के अलावा सदाम के दो और बच्चे भी थे. करीम और जूलिया. उम्र में एक-डेढ़ साल के अंतर से..सब बीड़ी बनाने और बेचने के काम में थे. सदाम पलाश के पत्ते और जर्दा खरीद लाता. समीना घर में बच्चों के साथ बीड़ी लपेट देती .दो दिन में जितना माल तैयार होता. सदाम नबील को लेकर बेच आता .कभी कभी तो पूरा परिवार ही बीड़ी बेचने के लिए खड़ा रहता. उस दिन बुधवार की हाट सदाम बीड़ी की टोकरी सजाए हाट में बैठा रहा. ग्राहकों के इंतजार में. उसे आज लग रहा था मानो बीड़ी पियक्कड़ उठे ही नहीं. अगर जागे होते तो क्या हाट बाजार न आते. घंटों गुजर गए दस मुट्ठी बीड़ी भी नहीं बिकी. बैठे बैठे मन उचटने लगा तो उठ कर खुद हाट का चक्कर लगाने निकल पड़ा. ठीहे पर नबील को बिठा दिया. लोग आते रहते नबील जिसे भी देखता बुलाने लगता बीड़ी ले लो बीड़ी..धूंए की भरमार है स्वाद जायकेदार.है..लोग तो समझते थे यह सामान बेचने का हथकंडा है चिल्लाओ, भरमाओ तो बिकता है..वर्ना दस साल के नबील को भला क्या मालूम कि बीड़ी का स्वाद और धूंआ कैसा होता है. बीड़ी सिगरेट किसी के भरमाने से थोड़े खरीदता है कोई. लोग तो लत और आदत से खरीदते हैं. शंकर काका कहते थे जिसे व्यसनों की लत लग गयी. तो समझो भैया गया काम से. बीड़ी तंबाकू की आदत हो और न मिले तो बेचैनी हो उठती है. तलब लगे और न मिले फिर देखो. धरमू तो अनाज बेच कर तंबाकू लाता था. लत ऐसी लगी कि क्षय रोग ने उसका जीवन लील कर ही छोड़ा. लेकिन जो खुद व्यसन बेचता हो उसे भला किसी के मरने-जीने , लाभ-हानि से क्या लेना देना. सदाम तो कारोबारी है. व तो यही चाहेगा, लोग ज्यादा बीड़ी पीएं तभी तो उसका धंधा बढ़ेगा. लेकिन कहते हैं कि ऐसे धंधे से जितना कमाओ. कम ही पड़ता है. सदाम का हाल इससे जुदा नहीं है. घर के सारे लोग इसी बीड़ी में जुते रहते हैं. सुबह बीड़ी शाम बीड़ी. बीबी बच्चे सब एक साथ, बीड़ी बनाने बेचने में बस.
3
मिरजा मौलवी जब भी मिलते यही कहते-सदाम, बच्चों को पढ़ाना लिखाना सिखाओ. ये पढ़ेंगे लिखेंगे तभी तो दीन दुनिया समझेंगे. अखलियत का उजाला देखेंगे. सदाम चिड़चिड़ा जाता -मौलवी जी जुलाहे के बच्चे पढ़ लिखकर का करेंगे. कौन से मुंसिफ-कलट्टर बन जाएंगे. पढ़ाने लिखाने के लिए पैसा कौड़ी कहां है. आज काम धंधा सीख लेंगे तभी तो कल परिवार का बोझ उठाएंगे. सदाम बोलते जाता- पढ़ लिखके भी नौकरी नहीं मिली तो काम धंधा ही करना है फिर आज से क्यों नहीं.
मिरजा मौलवी समझाते-पढ़ाई का मतलब सिर्फ काम-धंधा, नौकरी पाना नहीं होता है. पढऩे से अज्ञान मिटता है.समझदारी आती है. संस्कार और जीने का सलीका समझ आता है. रोजी नौकरी मिलती है. लेकिन सदाम के जेहन में मौलवी जी की बातेें नहीं समाती. उसे पढ़ाई लिखाई में समय की बर्बादी के शिवा कुछ नजर नहीं आता. वह बड़बड़ाता हुआ निकल जाता, मौलवी जी को जब देखो दीन दुनिया एखलाक की बातें करते हैं. काम तो करना नहीं सिर्फ किताब बांचते रहते हैं. न जाने किताबों में क्या लिखा होता है. उसे क्या मालूम, किताबें पढक़र लोग वैज्ञानिक विद्वान हो गए. साहब सुबा आखिर पढऩे से ही तो बनते हैं. लेकिन अनपढ़ सदाम के लिए किताबों की लिखावट केवल काला अक्षर दिखती है. उसे याद भी नहीं कि वह कभी स्कूल गया था. किताबें देखनी तो दूर की बात है. ऐसा भी नहीं कि कभी उसके मन में पढऩे का खयाल नहीं आया लेकिन घर की गरीबी ने उसे मदरसे से दूर रखा. कहते हैं सदाम के दादा उर्दू के बड़े जानकार थे हदीस कुरान फर-फर फर-फर पढ़ते थे. लेकिन अपने बेटे को चाहकर भी नहीं पढ़ा सके. मौलवी जी कहते हैं पढ़ाई लिखाई चाहत की बात होती है. सदाम कहता- पढऩा लिखना तकदीर की बात होती है. सदाम की दलील और भी थी कि पढऩे का मन है, लेकिन पैसा नहीं तकदीर नहीं तो क हां पढ़ पाएंगे. फिर काम-धंधा नहीं होगा तो परिवार कैसे चलेगा. मैं अकेला जान पलाश का पत्ता बटोरूंगा या बीड़ी लपेटूंगा. आमदनी कम और खर्च बड़ा होना भी उसकी उम्मीदों पर पानी फेर जाता. आखिर नसीब भी तो कोई चीज होती है. मुझे नहीं मिली तो मैं मदरसे का मुंह नहीं देख सका. अगर तकदीर होगी तो बच्चे जरूर पढ़ लेंगे मैं भला क्या रोक पाऊंगा.
4
रामेशर हलवाई सुनाते थे पहले मंत्री संत्री रजवाड़ा वाले पान खाते थे. शाही पान. भाई अब पान नहीं घास-फूस बिकता है. अगड़म-बगड़म डालो, थमा दो..खाना है तो खाओ या थूक दो. जो नए लोग हैं वे अब पान नहीं , गुटका खाते हैं. अमीर लोग बीड़ी नहीं खरीदते,वो तो आम लोगों की तलब है. जो गरीब गुरबा लोग हैं उनको थकान मिटाने के लिए घंटे भर में बीड़ी का दम जरूर मंगता है. सदाम का धंधा भी इन गरीब गुरबा लोगों पर ही तो चलता है. दिन भर की मेहनत से 100 रूपए कमाओ. नमक तेल से जो बचे उसी में से रूपए-दो रूपए की मुठ्ठी भर बीड़ी खरीद ली..खेत-मैदान की ओर गए तो फूंकते चले गए. ना रहे तो किसी से मांग कर एक कस मार ली वर्ना दिन दिन भर तलब से तड़पते रहे. सदाम का परिवार इसी बीड़ी में बझा रहता था लेकिन उसे नहीं पता कि उसका धूंआ कैसा होता है. सदाम को बीड़ी की कीमत पता थी, उसका स्वाद नहीं, उसका असर नहीं. उसे नहीं पता कि बीड़ी के धूएं से कइयों के फेफड़े जान का दुश्मन बन गए, लेकिन वह भला इसकी परवाह क्यों करें. मिरजा मौलवी सैकड़ों बार समझा चुके सदाम कोई और रोजी क्यों नहीं करते. आखिर बच्चों की सोचो.अगर उनको लत लग गयी तो क्या होगा. तुम चाहकर भी नहीं छुड़ा सकोगे. मौलवी जी समझाते जाते पीछे सब कुछ वैसा रह जाता. उसकी मजबूरी भी होती. सदाम सोचता-जो जहर बेचते हैं वो भला कौन सा दूसरों का सोचते हैं कि उससे कोई जी रहा या मर रहा. जहर बेचना उनका धंधा है. बीड़ी बेचना मेरा धंधा है. मेरी रोजी रोटी है. मौलवी जी पर कभी कभी खीझ भी आती.
खपरैल के सामने नीमझाड़ के नीचे लेटे लेटे वह दुबारा बीती जिन्दगी से रूबरू हो आया. सडक़ से गुजर रही लालाजी के मोटरकार की पो-पों से जब तन्द्रा टूटी तो समीना पास खड़ी थी. शौहर को अकेले गमगीन देख उसकी आखें भरभरा गयीं. बच्चे उन्हें अकेला छोड़ गए थे. जिन्हें सदाम और समीना ने पेट काटकर जिलाया, पढ़ाया लिखाया. इस आस में कि वे अच्छी समझ और नौकरी पाएंगे. आखिर यही तो कहा कहते थे मिरजा मौलवी..कि तालीम से संस्कार और समझदारी आती है. मौलवी जी जिन्दा होते तो सदाम उनसे सवाल पूछता कि मौलवी जी आखिर मेरे बच्चों में उस तालीम का असर क्यों नहीं हुआ. लेकिन उसकी तकदीर में यह भी नसीब नहीं हो सका. मौलवी जी नहीं रहे.पल भर के लिए उसका मन तड़प उठा. वेदना का गुबार उसकी आखों में आंसू बनकर पिघलता चला गया.
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गूगल से साभार |
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गांव की हाट में नबील चिल्लाए जा रहा था-बीड़ी ले लो भाई, बीड़ी..मजेदार बीड़ी, जायकेदार बीड़ी.. बीड़ी ले लो भाई बीड़ी..लोग आते, देखते और निकल जाते. वैसे बीड़ी तो वही खरीदता है, जिसे पीने की आदत हो. बाजार में हर कोई व्यसनी तो नहीं आता. हफ्ते की चार बाजारों में नबील की पुकार बस यही होती. कभी कभी खीझ भी होती, बीड़ी के बदले कुछ और बेचते तो शायद जादा धंधा होता. लेकिन बाप-दादों का पुस्तैनी कारोबार है, सो किए जा रहे..नबील के अलावा सदाम के दो और बच्चे भी थे. करीम और जूलिया. उम्र में एक-डेढ़ साल के अंतर से..सब बीड़ी बनाने और बेचने के काम में थे. सदाम पलाश के पत्ते और जर्दा खरीद लाता. समीना घर में बच्चों के साथ बीड़ी लपेट देती .दो दिन में जितना माल तैयार होता. सदाम नबील को लेकर बेच आता .कभी कभी तो पूरा परिवार ही बीड़ी बेचने के लिए खड़ा रहता. उस दिन बुधवार की हाट सदाम बीड़ी की टोकरी सजाए हाट में बैठा रहा. ग्राहकों के इंतजार में. उसे आज लग रहा था मानो बीड़ी पियक्कड़ उठे ही नहीं. अगर जागे होते तो क्या हाट बाजार न आते. घंटों गुजर गए दस मुट्ठी बीड़ी भी नहीं बिकी. बैठे बैठे मन उचटने लगा तो उठ कर खुद हाट का चक्कर लगाने निकल पड़ा. ठीहे पर नबील को बिठा दिया. लोग आते रहते नबील जिसे भी देखता बुलाने लगता बीड़ी ले लो बीड़ी..धूंए की भरमार है स्वाद जायकेदार.है..लोग तो समझते थे यह सामान बेचने का हथकंडा है चिल्लाओ, भरमाओ तो बिकता है..वर्ना दस साल के नबील को भला क्या मालूम कि बीड़ी का स्वाद और धूंआ कैसा होता है. बीड़ी सिगरेट किसी के भरमाने से थोड़े खरीदता है कोई. लोग तो लत और आदत से खरीदते हैं. शंकर काका कहते थे जिसे व्यसनों की लत लग गयी. तो समझो भैया गया काम से. बीड़ी तंबाकू की आदत हो और न मिले तो बेचैनी हो उठती है. तलब लगे और न मिले फिर देखो. धरमू तो अनाज बेच कर तंबाकू लाता था. लत ऐसी लगी कि क्षय रोग ने उसका जीवन लील कर ही छोड़ा. लेकिन जो खुद व्यसन बेचता हो उसे भला किसी के मरने-जीने , लाभ-हानि से क्या लेना देना. सदाम तो कारोबारी है. व तो यही चाहेगा, लोग ज्यादा बीड़ी पीएं तभी तो उसका धंधा बढ़ेगा. लेकिन कहते हैं कि ऐसे धंधे से जितना कमाओ. कम ही पड़ता है. सदाम का हाल इससे जुदा नहीं है. घर के सारे लोग इसी बीड़ी में जुते रहते हैं. सुबह बीड़ी शाम बीड़ी. बीबी बच्चे सब एक साथ, बीड़ी बनाने बेचने में बस.
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मिरजा मौलवी जब भी मिलते यही कहते-सदाम, बच्चों को पढ़ाना लिखाना सिखाओ. ये पढ़ेंगे लिखेंगे तभी तो दीन दुनिया समझेंगे. अखलियत का उजाला देखेंगे. सदाम चिड़चिड़ा जाता -मौलवी जी जुलाहे के बच्चे पढ़ लिखकर का करेंगे. कौन से मुंसिफ-कलट्टर बन जाएंगे. पढ़ाने लिखाने के लिए पैसा कौड़ी कहां है. आज काम धंधा सीख लेंगे तभी तो कल परिवार का बोझ उठाएंगे. सदाम बोलते जाता- पढ़ लिखके भी नौकरी नहीं मिली तो काम धंधा ही करना है फिर आज से क्यों नहीं.
मिरजा मौलवी समझाते-पढ़ाई का मतलब सिर्फ काम-धंधा, नौकरी पाना नहीं होता है. पढऩे से अज्ञान मिटता है.समझदारी आती है. संस्कार और जीने का सलीका समझ आता है. रोजी नौकरी मिलती है. लेकिन सदाम के जेहन में मौलवी जी की बातेें नहीं समाती. उसे पढ़ाई लिखाई में समय की बर्बादी के शिवा कुछ नजर नहीं आता. वह बड़बड़ाता हुआ निकल जाता, मौलवी जी को जब देखो दीन दुनिया एखलाक की बातें करते हैं. काम तो करना नहीं सिर्फ किताब बांचते रहते हैं. न जाने किताबों में क्या लिखा होता है. उसे क्या मालूम, किताबें पढक़र लोग वैज्ञानिक विद्वान हो गए. साहब सुबा आखिर पढऩे से ही तो बनते हैं. लेकिन अनपढ़ सदाम के लिए किताबों की लिखावट केवल काला अक्षर दिखती है. उसे याद भी नहीं कि वह कभी स्कूल गया था. किताबें देखनी तो दूर की बात है. ऐसा भी नहीं कि कभी उसके मन में पढऩे का खयाल नहीं आया लेकिन घर की गरीबी ने उसे मदरसे से दूर रखा. कहते हैं सदाम के दादा उर्दू के बड़े जानकार थे हदीस कुरान फर-फर फर-फर पढ़ते थे. लेकिन अपने बेटे को चाहकर भी नहीं पढ़ा सके. मौलवी जी कहते हैं पढ़ाई लिखाई चाहत की बात होती है. सदाम कहता- पढऩा लिखना तकदीर की बात होती है. सदाम की दलील और भी थी कि पढऩे का मन है, लेकिन पैसा नहीं तकदीर नहीं तो क हां पढ़ पाएंगे. फिर काम-धंधा नहीं होगा तो परिवार कैसे चलेगा. मैं अकेला जान पलाश का पत्ता बटोरूंगा या बीड़ी लपेटूंगा. आमदनी कम और खर्च बड़ा होना भी उसकी उम्मीदों पर पानी फेर जाता. आखिर नसीब भी तो कोई चीज होती है. मुझे नहीं मिली तो मैं मदरसे का मुंह नहीं देख सका. अगर तकदीर होगी तो बच्चे जरूर पढ़ लेंगे मैं भला क्या रोक पाऊंगा.
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रामेशर हलवाई सुनाते थे पहले मंत्री संत्री रजवाड़ा वाले पान खाते थे. शाही पान. भाई अब पान नहीं घास-फूस बिकता है. अगड़म-बगड़म डालो, थमा दो..खाना है तो खाओ या थूक दो. जो नए लोग हैं वे अब पान नहीं , गुटका खाते हैं. अमीर लोग बीड़ी नहीं खरीदते,वो तो आम लोगों की तलब है. जो गरीब गुरबा लोग हैं उनको थकान मिटाने के लिए घंटे भर में बीड़ी का दम जरूर मंगता है. सदाम का धंधा भी इन गरीब गुरबा लोगों पर ही तो चलता है. दिन भर की मेहनत से 100 रूपए कमाओ. नमक तेल से जो बचे उसी में से रूपए-दो रूपए की मुठ्ठी भर बीड़ी खरीद ली..खेत-मैदान की ओर गए तो फूंकते चले गए. ना रहे तो किसी से मांग कर एक कस मार ली वर्ना दिन दिन भर तलब से तड़पते रहे. सदाम का परिवार इसी बीड़ी में बझा रहता था लेकिन उसे नहीं पता कि उसका धूंआ कैसा होता है. सदाम को बीड़ी की कीमत पता थी, उसका स्वाद नहीं, उसका असर नहीं. उसे नहीं पता कि बीड़ी के धूएं से कइयों के फेफड़े जान का दुश्मन बन गए, लेकिन वह भला इसकी परवाह क्यों करें. मिरजा मौलवी सैकड़ों बार समझा चुके सदाम कोई और रोजी क्यों नहीं करते. आखिर बच्चों की सोचो.अगर उनको लत लग गयी तो क्या होगा. तुम चाहकर भी नहीं छुड़ा सकोगे. मौलवी जी समझाते जाते पीछे सब कुछ वैसा रह जाता. उसकी मजबूरी भी होती. सदाम सोचता-जो जहर बेचते हैं वो भला कौन सा दूसरों का सोचते हैं कि उससे कोई जी रहा या मर रहा. जहर बेचना उनका धंधा है. बीड़ी बेचना मेरा धंधा है. मेरी रोजी रोटी है. मौलवी जी पर कभी कभी खीझ भी आती.
खपरैल के सामने नीमझाड़ के नीचे लेटे लेटे वह दुबारा बीती जिन्दगी से रूबरू हो आया. सडक़ से गुजर रही लालाजी के मोटरकार की पो-पों से जब तन्द्रा टूटी तो समीना पास खड़ी थी. शौहर को अकेले गमगीन देख उसकी आखें भरभरा गयीं. बच्चे उन्हें अकेला छोड़ गए थे. जिन्हें सदाम और समीना ने पेट काटकर जिलाया, पढ़ाया लिखाया. इस आस में कि वे अच्छी समझ और नौकरी पाएंगे. आखिर यही तो कहा कहते थे मिरजा मौलवी..कि तालीम से संस्कार और समझदारी आती है. मौलवी जी जिन्दा होते तो सदाम उनसे सवाल पूछता कि मौलवी जी आखिर मेरे बच्चों में उस तालीम का असर क्यों नहीं हुआ. लेकिन उसकी तकदीर में यह भी नसीब नहीं हो सका. मौलवी जी नहीं रहे.पल भर के लिए उसका मन तड़प उठा. वेदना का गुबार उसकी आखों में आंसू बनकर पिघलता चला गया.